मत कर तू अभिमान रे बंदे , झूठी तेरी शान...

Posted On:- 2024-03-02




यह हम सब जानते हैं कि हमारा जीवन ईश्वर द्वारा दिया गया सर्वोत्तम उपहार है । यह भी अकाट्य सत्य है कि जिंदगी का सफर हम सभी के लिए क्षणभंगुर है । एक पल में हंसी- खुशी और अगले ही क्षण गमों का पहाड़ भी हमारी जिंदगी मैं उथल-पुथल मचा जाता है। यही मानवीय जिंदगी की हकीकत है । जब मैं एकांत में होता हूं तो विचार करता हूं कि ईश्वर द्वारा दिए गए क्षणभंगुर जीवन मैं क्या करूं और क्या न करूं ? सबसे बड़ी बात यह कि यदि हम विचारशील मन को चंचल होने से रोकें तो हमारा जीवन चुप रहने की गिरफ्त में आ जाएगा । हमने अपने जीवन में देखा है , जो व्यक्ति हमेशा चुप रहता है, उसका जीवन चिंता और परेशानी की घोर बदली में लुका-छुपी कर रहा होता है , जिसे ठीक नही कहा जा सकता है । इसीलिए मैंने यह अनुभव किया है कि यदि हम अपने क्षणभंगुर जीवन को अपनी दिनचर्या का अहम हिस्सा बना लेते हैं , तो हमेशा के लिए जीवन जीना सीख लेंगे   हमें इतनी ही सावधानी बरतनी होगी कि पल- प्रति - पल जीवन यात्रा में आने वाली छोटी खुशियों को बड़ी और स्थाई खुशी में तब्दील कर उसका आनंद लें । इसके विपरीत छोटी-छोटी परेशानियों को धूप -  छांव मानकर शांत मन के साथ उसके बीच जाने का इंतजार करें । दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई यदि कोई है , तो वह है हमारी अपनी मृत्यु । इसे कोई नहीं टाल सकता है । हम अपने क्षण मात्र से जीवनकाल में साम्राज्य बनाने , धन इकट्ठा करने और खुद के सम्मान के लिए ही चिंता कर रहे होते हैं ।
जीवन की क्षण भंगुर प्रकृति के विषय में हमारी समझ से निराशा उत्पन्न नहीं होनी चाहिए , बल्कि उस क्षण के प्रति गहरी सराहना होनी चाहिए जो हमें दिए गए हैं । प्रत्येक सूर्योदय , प्रत्येक साझा मुस्कान , दयालुता के प्रत्येक कार्य हमारे अस्तित्व की पिचकारी के अनमोल रंग बन जाते हैं । मानव जीवन क्षणिक है । इसमें आंतरिक सुंदरता का ही महत्त्व है । इस तरह की सोच के साथ हम इस मृत्युलोक में पाए गए बहुमूल्य घंटों में अर्थ , उद्देश्य और पूर्ति को प्राप्त कर सकते हैं । कारण यह कि हम नहीं जानते कि हमारा समय कब समाप्त होने वाला है । इसी मानव जीवन के संदर्भ में किसी कवि ने बड़ा सुंदर लिखा है :-
  " काम करो ऐसा , कि पहचान बन जाए ,
     हर कदम ऐसे चलो , कि निशान बन जाए ,
     यहां जीवन तो सभी काट लेते हैं ,

जीवन जीओ ऐसे , कि निशान बन जाए ।।" मैं कवि की उपर्युक्त भावना को पूरा समर्थन देता हूं । कारण यह कि आप और हम अपने जीवन में परिवार के लिए सब कुछ न्योछावर भी कर दें ,तो हमारी यादें अथवा हमारी कमी परिजनों के जीवन को कठिन करने वाली नहीं है । मनुष्य की मृत्यु के बाद ईश्वर द्वारा अन्य लोगों को दी गई शक्ति उनके दुखों को बुलाकर नए सिरे से जीवन जीने की प्रेरणा देती आ रही है ।एक कटु सत्य जो हर इंसान जानता है लेकिन न तो कहने की हिम्मत करता है और न ही लिखने की । मैं आज उस सच्चाई को लिखने का दुस्साहस कर रहा हूं । क्या आप जानते हैं कि हमारे प्राण निकलने अथवा आत्मा के चले जाने के बाद हमारा क्या होता है ?  जी !  हां ! इसे हर कोई बखूबी जानता है ! हमारी मृत्यु के बाद सबसे पहले हमारा " नाम " गुम हो जाता है , और परिजन सहित सगे- संबंधी " बॉडी " कहकर संबोधित करने लगते हैं । हम यदि सुबह-सुबह इस दुनिया चल बसे तो शाम होने से पहले हमें घर से निकाल कर श्मशान की ओर ले जाने की तैयारी शुरू हो जाती है । यदि हम दिन ढलने के बाद मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो सारे लोग बेसब्री के साथ सुबह होने का इंतजार कर रहे होते हैं । हमारी आत्मा निकल चुकी होती है किंतु वह आसपास का दृश्य देख रही होती है । कुछ ही घंटों में रोने - बिलखने की आवाजें बंद हो जाती हैं । अंतिम संस्कार में आए रिश्तेदारों को कहां ठहराना है ? उनके भोजन की व्यवस्था कैसे करनी है  ? इसे लेकर परिजनों में से कुछ लोग तैयारी में जुट जाते हैं । घर के छोटे बच्चे अथवा पोते- पोतियां अपने खेल में व्यस्त रहते हैं । इन सब के बीच कुछ ऐसे लोग भी फोन के माध्यम से औपचारिकता पूरी करते दिखाई पड़ते हैं कि किन्ही आपातकालीन कारणों से वे हमारे अंतिम दर्शन हेतु नहीं आ पा रहे हैं ! अंतिम संस्कार के बाद भीड़ धीरे-धीरे छंटने लगती है । घर के लोग भी अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं । कुछ कॉल आपके फोन पर भी आ रहे होते हैं । कारण यह की फोन करने वाले को यह पता नहीं होता कि आपकी मृत्यु हो चुकी है।
अभी आपकी आत्मा की शांति के लिए किए जाने वाले कर्मकांडों की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई होगी , किंतु आपका कार्यालय अथवा दुकान में आपकी जगह लेने वाले की तलाश तेजी से शुरू हो चुकी होगी ! यह तो फिर भी जरूरी कदम माना जा सकता है , किंतु आश्चर्य तो तब होता है जब आपकी चिता की आग ठंडी हो इससे पहले ही आपके बेटे- बेटी , अथवा पोते- पोती या फिर नाती - नातिन अपनी आपातकालीन छुट्टी समाप्त होने का बहाना कर काम पर लौटने लगेंगे ! तेरह दिन जैसे-तैसे शोक में रहते हुए बीत जाएंगे । जैसे ही शांति पाठ और मृत्यु भोज की परंपरा निपटी , कि लगभग सभी लोग अपनी सामान्य दिनचर्या में व्यस्त हो जाएंगे । अभी आपको गुजरे तीस दिन अथवा एक माह भी नहीं बीता होगा , कि आपका जीवन साथी मनोरंजन चलचित्र देखने थिएटर की दौड़ लगाता दिखाई पड़ेगा ! यह सारी गतिविधियां ठीक उसी तरह संपन्न होती दिखाई पड़ती है , जैसे किसी बूढ़े वृक्ष के पत्ते नीचे गिरकर पैरों तले चरमरा रहे हों ! हम जिनके लिए जीते-मरते हैं , उनके जीवन में हमारे जाने से कोई अंतर नहीं पड़ता ! यह कहना भी औपचारिकता में शामिल हो जाता है कि जो आता है उसे तो जाना ही होगा !
इस दुनिया से विदा लेने वाले की गलत फहमी जल्द ही दूर हो जाती है, और उसे आश्चर्यजनक रूप से पूरी गति के साथ भुला दिया जाता है ! देखते - देखते आपकी प्रथम पुण्य तिथि अथवा बरसी की तारीख भी आ जाती है । इसे स्मृति शेष के रूप में कोई भव्य तरीके से , तो कोई अमिट याद के रूप में अपनों के साथ आयोजित कर रहा होता है । पलक झपकते ही वर्ष बीतने के साथ आपके विषय में चर्चा का अध्याय भी बंद हो जाता है । अब बारी आती है आपको पुरानी तस्वीरों के साथ सजाने की । इन्हीं दिनों के बाद वह सिलसिला भी शुरू हो जाता है , जब लोग आपके व्यक्तित्व के साथ ही आपके साथ बिताए गए पल को लेकर तारीफ और बुराइयों का पुल भी बांधने लगते हैं ! इसलिए मैं कहना चाहता हूं  - जिंदगी एक बार मिलती है बस इसे भरपूर जीओ । अपने अस्तित्व का अहंकार छोड़ दो । अगर पुनर्जन्म होता है तो आप कहीं और जन्म ले चुके होंगे , नहीं तो चैप्टर हमेशा के लिए बंद । मुझे फिर अनूप जलोटा जी याद आ रहे हैं , जो कुछ इस तरह गुनगुना रहे हैं:-
 " तेरे जैसे लाखों आए ,लाखों इस माटी ने खाए
    रहा न नाम निशान , ओ बंदे मत कर तू



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